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रविश कुमार की आज हावर्ड में दी गई स्पीच …पढ़िए
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एनडीटीवी के एडिटर रवीश कुमार ने शनिवार को हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के एक कार्यक्रम में शिरकत की. वहां उन्होंने हिंदी में अपनी बात रखी. वहां उन्हें इंडिया कॉन्फ्रेंस 2018 में हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित किया गया था. उन्होंने वहां अपनी स्पीच में देश के वर्तमान हालात से लेकर छात्रों से जुड़े विषयों पर भी अपनी बात रखी. पढ़ें रवीश कुमार की पूरी स्पीच…
आप सभी का शुक्रिया. इतनी दूर से बुलाया वो भी सुनने के लिए जब कोई किसी की नहीं सुन रहा है. इंटरव्यू की विश्वसनीयता इतनी गिर चुकी है कि अब सिर्फ स्पीच और स्टैंडअप कॉमेडी का ही सहारा रह गया है. सवालों के जवाब नहीं हैं बल्कि नेता जी के आशीर्वचन रह गए हैं. भारत में दो तरह की सरकारें हैं. एक गवर्नमेंट ऑफ इंडिया. दूसरी गर्वनमेंट ऑफ मीडिया. मैं यहां गवर्नमेंट ऑफ मीडिया तक ही सीमित रहूंगा ताकि किसी को बुरा न लगे कि मैंने विदेश में गर्वनमेंट ऑफ इंडिया के बारे में कुछ कह दिया. यह आप पर निर्भर करता है कि मुझे सुनते हुए आप मीडिया और इंडिया में कितना फ़र्क कर पाते हैं.
एक को जनता ने चुना है और दूसरे ने ख़ुद को सरकार के लिए चुन लिया है. एक का चुनाव वोट से हुआ है और एक का रेटिंग से होता रहता है. यहां अमरीका में मीडिया है, भारत में गोदी मीडिया है. मैं एक-एक उदाहरण देकर अपना भाषण लंबा नहीं करना चाहता और न ही आपको शर्मिंदा करने का मेरा कोई इरादा है. गर्वनमेंट ऑफ मीडिया में बहुत कुछ अच्छा है. जैसे मौसम का समाचार. एक्सिडेंट की ख़बरें. सायना और सिंधु का जीतना, दंगल का सुपरहिट होना. ऐसा नहीं है कि कुछ भी अच्छा नहीं है. चपरासी के 14 पदों के लिए लाखों नौजवान लाइन में खड़े हैं, कौन कहता है उम्मीद नहीं है. कॉलेजों में छह छह साल में बीए करने वाले लाखों नौजवान इंतज़ार कर रहे हैं, कौन कहता है कि उम्मीद नहीं बची है. उम्मीद ही तो बची हुई है कि उसके पीछे ये नौजवान बचे हुए हैं.
एक डरा हुआ पत्रकार लोकतंत्र में मरा हुआ नागरिक पैदा करता है. एक डरा हुआ पत्रकार आपका हीरो बन जाए, इसका मतलब आपने डर को अपना घर दे दिया है. इस वक्त भारत के लोकतंत्र को भारत के मीडिया से ख़तरा है. भारत का टीवी मीडिया लोकतंत्र के ख़िलाफ़ हो गया है. भारत का प्रिंट मीडिया चुपचाप उस क़त्ल में शामिल है जिसमें बहता हुआ ख़ून तो नहीं दिखता है, मगर इधर-उधर कोने में छापी जा रही कुछ काम की ख़बरों में क़त्ल की आह सुनाई दे जाती है.
सीबीआई कोर्ट के जज बी एच लोया की मौत इस बात का प्रमाण है कि भारत का मीडिया किसके साथ है. कैरवान पत्रिका की रिपोर्ट आने के बाद दिल्ली के एंकर आसमान की तरफ देखने लगे और हवाओं में नमी की मात्रा वाली ख़बरें पढ़ने लगे थे. यहां तक कि इस डर का शिकार विपक्षी पार्टियां भी हो गईं हैं. उनके नेताओं को बड़ी देर बाद हिम्मत आई कि जज लोया की मौत के सवालों की जांच की मांग की जाए. जब हिम्मत आई तब सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की बेंच जज लोया के मामले की सुनवाई कर रही थी. इसके बाद भी कांग्रेस पार्टी ने जब जज लोया से संबंधित पूर्व जजों की मौत पर सवाल उठाया तो उसे दिल्ली के अख़बारों ने नहीं छापा, चैनलों ने नहीं दिखाया.
ऐसा नहीं है कि गर्वनमेंट ऑफ मीडिया सवाल करना भूल गया. उसने राहुल गांधी के स्टार वार्स देखने पर कितना बड़ा सवाल किया था. आप कह सकते हैं कि गर्वनमेंट ऑफ इंडिया चाहती है कि विपक्ष का नेता सीरीयस रहे. लेकिन जब वह नेता सीरीयस होकर जज लोया को लेकर प्रेस कांफ्रेंस कर देता है तो मीडिया अपना सीरीयसनेस भूल जाता है. दोस्तों याद रखना मैं गर्वनमेंट ऑफ मीडिया की बात कर रहा हूं, विदेश में गर्वनमेंट ऑफ इंडिया की बात नहीं कर रहा हूं.
मीडिया में क्या कोई ख़ुद से डर गया है या किसी के डराने से डर गया है, यह एक खुला प्रश्न है. डर का डीएनए से कोई लेना देना नहीं है, कोई भी डर सकता है, ख़ासकर फर्ज़ी केस में फंसाना और कई साल तक मुकदमों को लटकाना जहां आसान हो, वहां डर सिस्टम का पार्ट है. डर नेचुरल है. गांधी ने जेल जाकर हमें जेल के डर से आज़ाद करा दिया. ग़ुलाम भारत के ग़रीब से ग़रीब और अनपढ़ से अनपढ़ लोग जेल के डर से आज़ाद हो गए. 2जी में दो लाख करोड़ का घोटाला हुआ था, मगर जब इसके आरोपी बरी हो गए तो वो जनाब आज तक नहीं बोल पाए हैं. जिनकी किताब का नाम है NOT JUST AN ACCOUNTANT, THE DIARY OF NATIONS CONSCIENCE KEEPER. जब 2जी के आरोपी बरी हुए, सीबीआई सबूत पेश नहीं कर पाई तब मैंने पहली बार देखा, किसी किताब को कवर को छिपते हुए. आपने देखा है ऐसा होते हुए. लगता है कि किताब कह रही है कि ये बात सही निकली कि ये सिर्फ एकाउंटेंट नहीं हैं, मगर ये बात झूठ है कि वे नेशंस के कांशिएंस कीपर हैं.
एक डरा हुआ मीडिया जब सुपर पावर इंडिया का हेडलाइन लगाता है तब मुझे उस पावर से डर लगता है. मैं चाहता हूं कि विश्व गुरु बनने से पहले कम से कम उन कॉलेजों में गुरु पहुंच जाएं, जहां 8500 लड़कियां पढ़ती हैं मगर पढ़ाने के लिए 9 टीचर हैं. फिर आप कहेंगे कि क्या कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा है. क्या यह अच्छा नहीं है कि बिना टीचर के भी हमारी लड़कियां बीए पास कर जा रही हैं. क्या आप ऐसा हावर्ड में करके दिखा सकते हैं? कैंब्रिज में दिखा सकते हैं, आक्सफोर्ड में दिखा सकते हैं, क्या आप येल और कोलंबिया में ऐसा करके दिखा सकते हैं?
मीडिया ने इंडिया के बेसिक क्वेश्चन को छोड़ दिया है. इसलिए मैंने कहा कि इतनी दूर से आकर मैं गर्वनमेंट ऑफ मीडिया की बात करूंगा ताकि आपको न लगे कि मैं गर्वनमेंट ऑफ इंडिया की बात कर रहा हूं. मैं इंडिया की नहीं मीडिया की आलोचना कर रहा हूं. आप I और M में कंफ्यूज़ मत कर जाना.
एक ही मालिक के दो चैनल हैं. एक ही चैनल में दो एंकर हैं. एक सांप्रदायिकता फैला रहा है, एक किसानों की बात कर रहा है. एक झूठ फैला रहा है, एक टूटी सड़कों की बात कर रहा है. सवाल, हम जैसे सवाल करने वाले से है, जवाब हम जैसों के पास नहीं है. आप उनसे पूछिए जो आप तक मीडिया को लेकर आते हैं, जो आप तक इंडिया लेकर आते हैं. फेक न्यूज़ आज ऑफिशियल न्यूज़ है. न्यूज़ रूम में रिपोर्टर समाप्त हो चुके हैं. रिपोर्टर का इस्तेमाल हत्यारे के रूप में होता है. एक चैनल में एक सांसद के पीछ चार पांच रिपोर्टर एक साथ भेज दिया. देखने से लगा कि सारा मीडिया उसके पीछे पड़ा है. यह नया दौर है. डरा हुआ मीडिया अपने कैमरों से आपको डराने निकला है.
चैनलों पर सांप्रदायिकता भड़काने वाले एंकरों को जगह मिल रही है. इन एंकरों के पास सरकार के लिए कोई सवाल नहीं है, सिर्फ एक ही क्वेश्चन सबके पास है. इस सवाल का नाम है हिन्दू मुस्लिम क्वेश्चन, HMQ. भारत के न्यूज़ एंकर राष्ट्रवाद की आड़ में सांप्रदायिक हो चुके हैं. इस हद तक कि जब उदयपुर में नौजवान भगवा झंडा लेकर अदालत की छत पर चढ़ जाते हैं तो एंकर चुप हो गए हैं. क्या हम ऐसा भारत चाहते थे, चाहते हैं? अदालत जिस संविधान के तहत है, उसी संविधान की एक धारा से मीडिया अपनी आज़ादी का चरणामृत ग्रहण करता है. चरणामृत तो समझते होंगे. गर्वनमेंट ऑफ मीडिया के पास एक ही एजेंडा है. हिन्दू मुस्लिम क्वेश्चन. इससे जुड़े फेक न्यूज़ की इतनी भरमार है कि आप आल्ट न्यूज़ डॉट इन पर पढ़ सकते हैं. अब तो फेक न्यूज़ दूसरी तरफ़ से बनने लगे हैं.
My dear friends, believe me, Media is trying to murder our hard earned democracy. Our Media is a murderer. यह समाज में ऐसा असंतुलन पैदा कर रहा है, अपनी बहसों के ज़रिए ऐसा ज़हर बो रहा है जिससे हमारे लोकतंत्र के भीतर भय का माहौल बना रहे. जिससे एक भीड़ कभी भी कहीं भी ट्रिगर हो जाती है और आपको ओवरपावर कर देती है. आप कहेंगे कि क्या इतना बुरा है, कुछ भी अच्छा नहीं है. मुझे पता है कि आपको बीच बीच में पॉज़िटिव अच्छा लगता है. एक पोज़िटिव बताता हूं. भारत का लोकतंत्र मीडिया के झुक जाने से नहीं झुक जाता है. वह मीडिया के मिट जाने से नहीं मिट जाएगा. वह न तो आपातकाल में झुका न वह गोदी मीडिया के काल में झुकेगा. भारत का लोकतंत्र हमारी आत्मा है. हमारा ज़मीर है. आत्मा अमर है. आप गीता पढ़ सकते हैं. मैं गर्वनमेंट ऑफ मीडिया की बात कर रहा हूं.
आपकी तरह मैं भी भारत को लेकर सपने देखता हूं. मगर जागते हुए. सामने की हकीकत ही मेरे लिए सपना है. मैं एक ऐसे भारत का सपना देखता हूं जो हकीकत का सामना कर सके. सोचिए ज़रा हम आज कल अतीत के सवालों मे क्यों उलझे हैं. अगर इन सवालों का सामना ही करना है तो क्या हम ठीक से कर रहे हैं, क्या इन सवालों का सामना करने की जगह टीवी का स्टुडियो है? या क्लासरूम है, कांफ्रेंस रूम हैं, और सामना हम किस तरह से करेंगे, क्या हम आज हिसाब करेंगे, क्या हम आज क़त्लेआम करेंगे? तो क्या आप अपने घर से एक हत्यारा देने के लिए तैयार हैं? नफ़रत की यह आंधी हर घर में एक हत्यारा पैदा कर जाएगी, वो आपका भाई हो सकता है, बेटा हो सकता है, दोस्त हो सकता है, पड़ोसी हो सकता है, क्या आपने मन बना लिया है? क्या हमने सीखा है कि इतिहास का सामना कैसे किया जाए? हम क्लास रूम में नहीं, सड़क और टीवी स्टुडियो में इतिहास का हिसाब करने निकले हैं. नेहरू को मुसलमान बना देने से या अकबर को पराजित बना देने से आप इतिहास नहीं बदल देते, इतिहास जब शिक्षा मंत्री के आदेश से बदलने लगे तो समझिए कि वह मंत्री केमिस्ट्री का भी अच्छा विद्यार्थी नहीं रहा होगा. क्या आप यहां हार्वर्ड में बैठकर इस बात को स्वीकार कर सकते हैं कि इतिहास के क्लास रूम में कोई मंत्री आकर इतिहास बदल दे. प्रोफेसर के हाथ से किताब लेकर, अपनी किताब पढ़ने के लिए दे दे. क्या आप बर्दाश्त करेंगे? जब आप खुद के लिए यह बर्दाश्त नहीं कर सकते तो भारत के लिए कैसे कर सकते हैं?
ज़रूर इतिहास में नई बहस चलनी चाहिए, नए शोध होने चाहिए. लेकिन हम वैसा कर रहे हैं. एक फिल्म पर हमने तीन महीने बहस की है. इतनी बहस हमने भारत की ग़रीबी पर नहीं की, भारत की संभावनाओं पर नहीं की, हमने तीन महीने एक फिल्म पर बहस की. तलवारें लेकर लोग स्टुडियो में आ गए, अब किसी दिन बंदूकें लेकर आएंगे.
महाराणा की हार के बाद भी लोगों ने महान विजेता के रूप में स्वीकार किया था. उनकी वीरता की गाथा पर उस हार का कोई असर ही नहीं था, जिसे एक शिक्षा मंत्री ने अपनी ताकत से बदलने की कोशिश की. लोक श्रुतियों में अपराजेय महाराणा के लिए किताबों में बड़ी हार है. मुझे नहीं लगता कि महाराणा प्रताप जैसे बहादुर क़ाग़ज़ पर हार की जगह जीत लिख देने से खुश होते. जो वीर होता है वो हार को भी गले लगाता है. पर यह सही है कि पब्लिक में इतिहास को लेकर वैसी समझ नहीं है जैसी क्लास रूम में है. क्लास रूम में भी भारी असामनता है. इतिहास के लाखों छात्रों को अच्छी किताबें नहीं मिलीं, शिक्षक नहीं मिले इसलिए सबने किताब की जगह कूड़ा उठा लिया. कूड़े को इतिहास समझ लिया. हम आज भी इतिहास को गौरव गान और गौरव भाव के बिना नहीं समझ पाते हैं. सोने की चिड़िया था हमारा देश. विश्व गुरु था देश. ये सब विशेषण हैं, इतिहास नहीं है. SUPERLATIVES CANT BE HISTORY.
वैसे इस तीन महीने में भारत मे जितने इतिहासकार पैदा हुए हैं, उतने ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज अपने कई सौ साल के इतिहास में पैदा नहीं कर पाए होंगे. भारत में आप बस जलाकर, पोस्टर फाड़कर इतिहासकार बन सकते हैं. किसी फिल्म का प्रदर्शन रुकवा कर आप इतिहासकार बन सकते हैं. तीन साल में हमने जिनते इतिहासकार पैदा किए हैं, उनके लिए अब हमारे पास उतनी यूनिवर्सटी भी नहीं हैं.
अंग्रेज़ों की कल्पना थी कि भारत के इतिहास को हिन्दू इतिहास मुस्लिम इतिहास में बदल दो. आज बहुत से लोग अंग्रेज़ी हुकूमत की सोच को पूरा कर रहे हैं. वो वापस इतिहास को हिन्दू बनाम मुसलमान के खांचे में ले जा रहे हैं. वर्तमान पर पर्दा डालने के लिए इतिहास से वैसे मुद्दे लाए जा रहे हैं जिनके ज़रिए नागरिक का, मतदाता का धार्मिक पहचान बनाई जा सके. हम क्यों अपनी भारतीयता कभी अनेकता में एकता में खोजते खोजते, धार्मिक एकरूपता में खोजने लगते हैं? हम संविधान से अपनी पहचान क्यों नहीं हासिल करते, जिसके लिए हमने सौ साल की लड़ाई लड़ी. दिन रात बहस किए, लाखों लोग जेल गए.
अगर बहुतों को लगता है कि इस सवाल पर बहस होनी चाहिए तो क्या हम सही तरीके से अपने सवाल रख रहे हैं, बहस कर रहे हैं, क्या उसका मंच अख़बार तक न पढ़ने वाले ये एंकर होंगे. आख़िर क्यों बहुसंख्यक धर्म इतिहास के किरदारों पर धार्मिक व्याख्या थोपना चाहता है? कभी मीडिया के स्पेस में हमारी भारतीयता मिले सुर मेरा तुम्हारा से बनती थी, आज हमारा सुर हमारा, तुम्हारा सुर तुम्हारा या तुम्हारा सुर कुछ नहीं, हमारा ही सुर तुम्हारा.
हम भारतीयों का भारतीय होने का बोध और इतिहास बोध दोनों संकट से गुज़र रहा है. हमें एक खंडित नागरिकता के बोध के साथ तैयार किए जा रहे हैं. जिसके भीतर फेक न्यूज़ और फेक हिस्ट्री के ज़रिए ऐसी पोलिटिकिल प्रोग्रामिंग की जा रही है कि किसी भी शहर में छोटे छोटे समूह में लोगों को ट्रिगर किया जा सकता है. क्या आप इतिहास का बदला ले सकते हैं तो फिर आप न्याय की मूल अवधारणा के खिलाफ जा रहे हैं जो कहता है कि खून का बदला खून नहीं होता है. अगर हम खून का बदला खून की अवधारणा पर जाएंगे तो हमारे चारों तरफ हिंसा ही हिंसा होगी.
इस समय भारत में दो तरह के पोलिटिकल आइडेंटिटि हैं. एक जो धार्मिक आक्रामकता से लैस है और दूसरा तो धार्मिक आत्मविश्वास खो चुका है. एक डराने वाला है और डरा हुआ है. यह असंतुलन आने वाले समय में हमारे सामने कई चुनौतियां लाने वाला हैं जिन्हें हम ख़ूब पहचानते हैं. हमने इसके नतीजे देखे हैं, भुगते भी हैं. अलग-अलग समय पर अलग-अलग समुदायों ने भुगते हैं. हमारी स्मृतियों से पुराने ज़ख़्म मिटते भी नहीं कि हम नए ज़ख़्म ले आते हैं.
जैसे हिन्दुस्तान एक टू इन वन देश है. जिसे हमारी सरकारी ज़ुबान में इंडिया और भारत के रूप में पहचान मिल चुकी है. उसी तरह हमारी पहचान धर्म और जाति के टू इन वन पर आधारित है. आप इन जाति संगठनों की तरफ से भारत को देखिए, आप उसका चेहरा सबके सामने देख नहीं पाएंगे. आप जाति का चेहरा चुपके से घर जाकर देखते हैं. हमने जाति को ख़त्म नहीं किया. हमने आज़ाद भारत में नई नई CAST COLONIES बनाई हैं. ये CAST COLONIES CONCRETE की हैं. इसके मुखिया उस आधुनिक भारत में पैदा हुए लोग हैं. पूछिए खुद से कि आज क्यों समाज में ये जाति कोलोनी बन रही हैं.
आज का मतलब 2018 नहीं और न ही 2014 है. हम भारत का गौरव करते हैं, धर्म का गौरव करते हैं, जाति का गौरव करते हैं. हम अपने भीतर हर तरह की क्रूरता को बचाते रहना चाहते हैं. क्या जाति वाकई गौरव करने की चीज़ है? इस सवाल का जवाब अगर हां है तो हम संविधान के साथ धोखा कर रहे हैं, अपने राष्ट्रीय आंदोलन की भावना के साथ धोखा कर रहे हैं. टीम इंडिया का राजनीतिक स्लोगन कास्ट इंडिया, रीलीजन इंडिया में बदल चुका है.
आंध्र प्रदेश में ब्राह्ण जाति की एक कोपरेटिव सोसायटी बनी है. इसका मिशन है ब्राह्मणों की विरासत को दोबारा से जीवित करना और उसे आगे बढ़ाना. ब्राह्मणों की विरासत क्या है, राजपूतों की विरासत क्या है? तो फिर दलितों की विरासत भीमा कोरेगांव से क्या दिक्कत है? फिर मुग़लों की विरासत से क्या दिक्कत है जहां इज़राइल के राष्ट्र प्रमुख भी अपनी पत्नी के साथ दो पल गुज़ारना चाहते हैं. आप इस सोसायटी की वेबसाइट http://www.apbrahmincoop.com पर जाइये. मुख्यमंत्री चंद्रा बाबू नायडू इसकी पत्रिका लांच कर रहे हैं क्योंकि इस सोसायटी का मुखिया उनकी पार्टी का सदस्य है.
इस सोसायटी के लक्ष्य वहीं हैं जो एक सरकार के होने चाहिए. जो हमारी आर्थिक नीतियों के होने चाहिए. क्या हमारी नीतियां इस कदर फेल रही हैं कि अब हम अपनी अपनी जातियों का कोपरेटिव बनाने लगे हैं. इसका लक्ष्य है ग़रीब ब्राह्मण जातियों का सेल्फ हेल्फ ग्रुप बनाना, उन्हें बिजनेस करने, गाड़ी खरीदने का लोन देना. इसके सदस्य सिर्फ ब्राह्मण समुदाय से हो सकते हैं. आईएएस हैं, पेशेवर लोग हैं. इसके चेयमैन आनंद सूर्या भी ब्राह्मण हैं. अपना परिचय में खुद को ट्रेड यूनियन नेता और बिजनेसमैन लिखते हैं. दुनिया में बिजनैस मैन शायद ही ट्रेड यूनियन नेता बनते हैं. वे बीजेपी, भारतीय मज़दूर संघ, जनता दल, समाजवादी जनता पार्टी, जनता दल सेकुलर में रह चुके हैं. जहां उन्होंने सीखा है कि ब्राह्ण समुदाय को नैतिक और राजनीतिक समर्थन कैसे देना है. हमें पता ही नहीं था समाजवादी पार्टी में लोग ये सब भी सीखते हैं. 2003 से वे टीडीपी में हैं.
यह अकेला ऐसा संस्थान नहीं है. विदेशों में भी और भारत में भी ऐसे अनेक जातिगत संगठन कायम हैं. इनके अध्यक्षों की राजनीतिक हैसियत किसी नेता से अधिक है. इस स्पेस के बाहर बिना इस तरह की पहचान के लिए नेता बनना असंभव है. बंगलुरू में तो 2013 में सिर्फ ब्राह्मणों के लिए वैदिक सोसायटी बननी शुरू हो गई थी. सोचिए एक टाउनशिप है सिर्फ ब्राह्मणों का. ये एक्सक्लूज़न हमें कहां ले जाएगा, क्या यह एक तरह का घेटो नहीं है. 2700 घर ब्राहमणों के अलग से होंगे. ये तो फिर से गांवों वाला सिस्टम हो जाएगा. ब्राह्मणों का अलग से. क्या यह घेटो नहीं है?
आज़ाद भारत में यह क्यों हुआ? अस्सी के दशक में जब हाउसिंग सोसायटी का विस्तार हुआ तो उसे जाति और खास पेशे के आधार पर बसाया गया. दिल्ली में पटपड़गंज है, वहां पर जाति, पेशा, इलाका और राज्य के हिसाब से कई हाउसिंग सोसायटी आपको मिलेगी. तो फिर हम संविधान के आधार पर भारतीय कैसे बन रहे थे. क्या बिना जाति के समर्थन के हम भारतीय नहीं हो सकते.
जयपुर के विद्यानगर में जातियों के अलग अलग हॉस्टल बने हैं. श्री राजपूत सभा ने अपनी जाति के लड़कों के लिए हॉस्टल बनाए हैं. लड़कियों के भी हैं. यादवों के भी अलग हॉस्टल हैं. मीणा जाति के भी अलग छात्रावास हैं. ब्राह्मण जाति के भी अलग हॉस्टल हैं. अब आप बतायें, इन हॉस्टल से निकल जो भी आगे जाएगा वो अपने भीतर किसकी पहचान को आगे रखेगा. क्या उसकी पहचान का संविधान आधारित भारतीयता से टकराव नहीं होगा? खटिक छात्रावस भी है जो सरकार ने बनाए हैं. क्यों राज्य सरकारों को दलितों के लिए अलग से हॉस्टल बनाने की ज़रूरत पड़ी? क्या हमारी जातियों के ऊंचे तबके ने संविधान के आधार पर भारत को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, क्या वह संविधान आधारित नागरिकता को पसंद नहीं करता है? क्या जातियों को कोई ऐसा समूह है जो धर्म के सहारे अपना वर्चस्व फिर से हासिल करना चाहता है? क्या कोई ऐसा भी समूह है जो अब पहले से कई गुना ज़्यादा ताकत से इस वर्चस्व को चुनौती दे रहा है?
भारत की राजनीति की तरह मीडिया भी इन्हीं कास्ट कॉलोनी से आता है. उसके संपादक भी इसी कास्ट कालोनी से आते हैं. उन्हें पब्लिक में जाति की पहचान ठीक नहीं लगती मगर उन्हें धर्म की पहचान ठीक लगती है. इसलिए वे धर्म की पहचान के ज़रिए जाति की पहचान ठेल रहे हैं. यह काम वही कर सकता है जो लोकतंत्र में यकीन नहीं रखता हो क्योंकि जाति लोकतंत्र के ख़िलाफ़ है. गर्वनमेंट ऑफ मीडिया में सब कुछ ठीक नहीं है. पोज़िटिव यही है कि लोकतंत्र के ख़िलाफ़ यह पूरी आज़ादी से बोल रहा है. भाईचारे के ख़िलाफ़ पूरी आज़ादी से बोल रहा है. हमारी गर्वनमेंट ऑफ मीडिया आज़ाद है. पहले से कहीं आज़ाद है. इसी पोज़िटिव नोट पर मैं अपना भाषण समाप्त कर रहा हूं.
कुल मिलाकर हम यथास्थिति को प्रमोट कर रहे हैं. धर्म के गौरव को हम राष्ट्र बता रहे हैं. आप चाहें तो डार्विन को रिजेक्ट कर सकते हैं. आप चाहें तो गणेश पूजा को ही मेडिकल कॉलेज की पढ़ाई घोषित कर सकते हैं.
Open Letter to the Chief Justice of India
Dear Chief Justice,
The four senior puisne Judges of the Supreme Court have brought to light a serious issue regarding the manner of allocation of cases, particularly sensitive cases, to various benches of the Supreme Court. They have expressed a grave concern that cases are not being allocated in a proper manner and are being allocated arbitrarily to particular designated benches, often headed by junior judges, in an arbitrary manner. This is having a very deleterious effect on the administration of justice and the rule of law.
We agree with the four Judges that though the Chief Justice of India is the master of roster and can designate benches for allocation of work, this does not mean that it can be done in an arbitrary manner such that, sensitive and important cases are sent to hand picked benches of junior judges by the Chief Justice. This issue needs to be resolved and clear rules and norms must be laid down for allocation of benches and distribution of cases, which are rational, fair and transparent. This must be done immediately to restore public confidence in the judiciary and in the Supreme Court. However till that is done, it is important that all sensitive and important cases including pending ones, be dealt with by a Constitution Bench of the 5 senior most Judges of this Court. Only such measures would assure the people that the Supreme Court is functioning in a fair and transparent manner and that the power of the Chief Justice as master of roster is not being misused to achieve a particular result in important and sensitive cases. We therefore urge you to take immediate steps in this regard.
Signed by:
Justice P.B. Sawant, (Retd.) former Judge, Supreme Court of India
Justice A.P. Shah, (Retd.) former Chief Justice, Delhi High Court
Justice K. Chandru, (Retd.) former Judge, Madras High Court
Justice H. Suresh, (Retd.) former Judge, Bombay High Court
The press conference, a first of its kind to be ever held by sitting Supreme Court judges in India, blew the lid on a growing rift between senior judges and the Chief Justice of India Dipak Misra
Here’s the full text of the letter:
Dear Chief Justice,
It is with great anguish and concern that we have thought it proper to address this letter to you so as to highlight certain judicial orders passed by this Court which has adversely affected the overall functioning of the justice delivery system and the independence of the High Courts besides impacting the administrative functioning of the offices of the Hon’ble Chief Justice of India.
From the date of establishment of the three chartered High Courts of Calcutta, Bombay and Madras, certain traditions and conventions in the judicial administration have been well established. The traditions were embraced by this Court which came into existence almost a century after the above mentioned Chartered High Courts. These traditions have their roots in the anglo saxon jurisprudence and practice.
One of the well-settled principles is that the Chief Justice is the master of the roster with the privilege to determine the roster, necessity in multi numbered courts for an orderly transaction of business and appropriate arrangements with respect to matters with which members/bench of this Court (as the case may be) is required to deal with which case or class of cases is to be made. The convention of recognising the privilege of the Chief Justice to form the roster and assign cases to different members/benches of the Court is a convention devised for a disciplined and efficient transaction of business of the Court, but not a recognition of any superior authority, legal or factual, of the Chief Justice over his colleagues. It is too well-settled in the jurisprudence of this country that the Chief Justice is only the first among the equals — nothing more or nothing less.
In the matter of the determination of the roster, there are well-settled and time-honoured conventions guiding the Chief Justice, be the conventions dealing with the strength of the bench which is required to deal with the particular case or the composition thereof.
A necessary corollary to the above mentioned principle is the members of any multi-numbered judicial body including this Court would not arrogate to themselves the authority to deal with and pronounce upon matters which ought to be heard by appropriate benches, both composition-wise and strength-wise with due regard to the roster fixed.
Any departure from the above two rules would not only lead to unpleasant and undesirable consequences of creating doubt in the body politic about the integrity of the institution. Not to talk about the chaos that would result from such departure.
We are sorry to say that off late the twin rules mentioned above have not been strictly adhered to. There have been instances where case having far-reaching consequences for the Nation and the institution had been assigned by the Chief Justices of this Court selectively to the benches “of their preference” without any rationale basis for such assignment. This must be guarded against at all costs.
We are not mentioning details only to avoid embarrassing the institution but note that such departures have already damaged the image of this institution to some extent.
In the above context, we deem it proper to address you presently with regard to the order dated 27th October, 2017 in R.P. Luthra vs. Union of India to the effect that there should be no further delay in finalising the Memorandum of Procedure in the larger public interest. When the Memorandum of Procedure was the subject matter of a decision of a Constitution Bench of this Court in Supreme Court Advocates-on-Record Association And Anr. vs. Union of India [(2016) 5 SCC1] it is difficult to understand as to how any other Bench could have dealt with the matter.
The above apart, subsequent to the decision of the Constitution Bench, detailed discussions were held by the Collegium of five judges (including yourself) and the Memorandum of Procedure was finalised and sent by the then Honourable the Chief Justice of India to the Government of India in March 2017. The Government of India has not responded to the communication and in view of this silence, it must be taken that the Memorandum of Procedure as finalised by the Collegium has been accepted by the Government of India on the basis of the order of this Court in Supreme Court Advocates-on-Record Association (Supra). There was, therefore, no occasion for the Bench to make any observation with regard to the finalisation of the Memorandum of Procedure or that that issue cannot linger on for an indefinite period.
On 4th July, 2017, a bench of seven judges of this Court decided In Re, Hon’ble Shri Justice C.S. Karnan [(2017) 1 SCC 1]. In that decision (referred to in R.P. Luthra), two of us observed that there is a need to revisit the process of appointment of judges and to set up a mechanism for corrective measures other than impeachment. No observation was made by any of the seven learned judges with regard to the Memorandum of Procedure.
Any issue with regard to the Memorandum of Procedure should be discussed in the Chief Justices conference and by the full Court. Such a matter of grave importance, if at all required to be taken on the judicial side, should be dealt with by none other than a Constitution Bench.
The above development must be viewed with serious concern. The Honourable Chief Justice of India is duty bound to rectify the situation and take appropriate remedial measures after a full discussion with the other members of the Collegium and at a later stage, if required, with other Hon’ble Judges of this Court.
Once the issue arising from the order dated 27th October, 2017 in R.P. Luthra vs. Union of India, mentioned above, is adequately addressed by you and if it becomes so necessary, we will apprise you specifically of the other judicial orders passed by this Court which would require to be similarly dealt with.
With kind regards,
[SIGNED]
Justice J. Chelameswar
Justice Ranjan Gogoi
Justice Madan B. Lokur
Justice Kurian Joseph
लाक-ए-बिदअत मुखालिफ मोदी कानून
हिसाम सिद्दीक़ी
वजीर-ए-आजम नरेन्द्र मोदी के नौरत्नों में शामिल वजीर कानून रविशंकर प्रसाद ने किसी एनजीओ के जरिए इकट्ठा किए गए आदाद व शुमार (आंकड़ों) की बुनियाद पर तलाक-ए-बिदअत यानी एक ही मजलिस में या वक्त पर तीन बार इकट्ठा तलाक देने वालों के खिलाफ एक कानून बनाया जिसे आनन-फानन लोक सभा से पास भी करा लिया गया। कहा गया कि यह मुस्लिम ख्वातीन के और मुल्क के लिए एक तारीखी कानून है। इस कानून के मुताबिक अब अगर किसी शख्स ने अपनी बीवी को एक ही बार में तीन बार तलाक, तलाक, तलाक कहकर खुद से अलग करने की हरकत की तो बीवी की शिकायत पर उस शख्स को तीन साल तक के लिए जेल की हवा खानी पड़ेगी। उसे अपनी बीवी और बच्चों को खर्च भी देना पडे़गा। याद रहे कि 22 अगस्त 2017 को सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की बेंच ने अपने फैसले में कहा था कि एक साथ तीन तलाक कुरआन से साबित नहीं है इसलिए इस किस्म की तलाक को गैर इस्लामी गैर कानूनी नाजायज और गैर अखलाकी (अनैतिक) करार दिया जाता है। आइंदा अगर कोई शख्स एक साथ तीन तलाक देगा तो वह तलाक दोनों यानी शौहर और बीवी के लिए काबिले कुबूल नहीं होगी। सरकार को सुप्रीम कोर्ट से दरख्वास्त करनी चाहिए थी वह इसमें इतना आर्डर और शामिल कर दे कि अब भी अगर कोई शख्स एक साथ तीन तलाक देगा तो बीवी की शिकायत पर उस शौहर के खिलाफ ‘घरेलू हिंसा’ कानून के तहत सख्त कार्रवाई होगी। सुप्रीम कोर्ट ने उसी वक्त सरकार से कहा था कि वह इस सिलसिले में एक कानून बनाए लेकिन उस वक्त रविशंकर प्रसाद ने ही कह दिया था कि सरकार इस पर कोई कानून नहीं बनाएगी। अब अचानक ऐसी कौन सी जरूरत पड़ गई कि सरकार ने जल्दबाजी में लंगड़ा-लूला कानून बना कर औरतों को ही नुक्सान पहुचाने का इंतजाम कर दिया। यह कानून मुस्लिम ख्वातीन के मफाद (हित) के खिलाफ है। इसका अंदाजा अभी उन चंद ख्वातीन को नहीं है जो आरएसएस लीडर इंद्रेश कुमार के इशारों पर काम कर रही हैं। सरकार को कानून बनाने की इतनी जल्दी थी कि सरकार ने इस्लाम के जानकारों, उलेमा, मुस्लिम तंजीमों, उन ख्वातीन जिनको आगे करके कानून बनाने का रास्त साफ किया गया उनको मोदी वजारत में शामिल दोनों वजीरों मुख्तार अब्बास नकवी और एम जे अकबर तक से इस पर कोई मश्विरा नहीं किया।
सिविल कानून को क्रिमिनल कानून का जामा पहनाकर रविशंकर प्रसाद और नरेन्द्र मोदी चाहे जितना अपनी पीठ थपथपाने का काम करें यहां तो रविशंकर प्रसाद से बड़ी चूक हो गई है। उन्होने मुल्क के सिविल लाॅ को शरअी कानून की हैसियत देने की गलती की है और एक शरअी कानून बना दिया है। दूसरे खलीफा हजरत उमर ने एक साथ तीन तलाक को तस्लीम कर लिया था लेकिन तलाक देने वाले को तीस कोडा़े की सजा भी तय कर दी थी। यही शरअी कानून है। रविशंकर प्रसाद ने तीस कोड़ों को तीन साल की कैद में तब्दील कर दिया। रविशंकर प्रसाद ने तीन तलाक न मानने वाले कई मुस्लिम मुल्कों के नाम गिनवाए उन तमाम मुल्कों में जम्हूरियत नहीं है देश के लोगों का बनाया हुआ कोई संविधान नहीं है उनमें तो इस्लामी और शरअी या डिक्टेटराना कानून चलते हैं यानी उन्होेने शरअी कानून को ही तस्लीम कर लिया है। चूंकि रविशंकर प्रसाद को इस्लाम की मालूमात नहीं है और जरूरत से ज्यादा काबिलियत जाहिर करने के चक्कर में उन्होने इस्लाम के किसी जानकार से मश्विरा नहीं किया। इसीलिए उन्होने नए कानून में तीन साल तक की सजा का बंदोबस्त कर दिया। उन्हें मालूम ही नहीं है कि अगर किसी शौहर और बीवी ने चार महीनों से ज्यादा मुद्दत तक जिस्मानी ताल्लुक (शारीरिक संबंध) कायम नहीं किए तो यह अमल उनके तलाक की जायज (वैलिड) वजह बन जाता है। जो शौहर तीन सालों के लिए या डेढ-दो सालों के लिए भी जेल चला गया तो सजा की मुद्दत तक वह अपनी बीवी के साथ जिस्मानी ताल्लुक कायम नहीं कर सकेगा और तलाक की सूरत खुद ब खुद पैदा हो जाएगी।
मुस्लिम समाज में सिर्फ औरतें की नहीं अक्सरियत में मर्द भी ऐसे हैं जो एक वक्त में ही तीन तलाक के खिलाफ हैं। अस्सी फीसद से ज्यादा मुस्लिम मर्द औरतें किसी भी तरह के तलाक के खिलाफ हैं। हर मुसलमान जानता है कि किसी ऐसी मजबूरी के सिवाए कि दोनों का एक साथ रह पाना या गुजर कर पाना पूरी तरह नामुमकिन हो जाए, तलाक नहीं होना चाहिए। कुरआन ने तलाक का जो तरीका बताया है उसे अख्तियार किया जाए तो तलाक होने की शायद सूरत ही बाकी नहीं रहेगी। सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया है कि अब मुल्क में एक साथ तीन तलाक काबिले कुबूल नहीं होगी तो फिर एक साथ तीन बार तलाक कहने वाले को सजा किस बात की मिलेगी? अगर रविशंकर प्रसाद खुद ही ‘अक्ले कुल’ वाला वकील बनने के बजाए मामले का जानकारों से मश्विरा करके कानून बनाते तो एक बेहतर और सख्त कानून बन सकता था। जिस का खौफ भी लोगों पर हावी रहता। मसलन कानून में यह बंदोबस्त होता कि एक साथ तीन तलाक कहने वाले को उसके महर की दस से बीस गुनी रकम बीवी के बैंक अकाउंट मे जमा करनी पड़ेगी जिसपर मुस्तकबिल में भी सिर्फ और सिर्फ बीवी का अख्तियार (अधिकार) रहेगा शौहर वह पूरी रकम या उसका कुछ हिस्सा वापस नहीं ले पाता। इसके अलावा शौहर पर भारी भरकम जुर्माना भी लगाया जाता इस तरह तलाक देने वाले पर दस से पन्द्रह साल तक अगली शादी करने पर पाबंदी लगाई जा सकती थी। बीवी की शिकायत पर इस तरह तलाक-ए-बिदअत देने वाले के खिलाफ ‘घरेलू हिंसा’ कानून के तहत सख्त कार्रवाइयों का बंदोबस्त कानून में हो सकता था। निकाहनामे में शर्त शामिल की जा सकती थी कि शौहर कभी भी बीवी को एक साथ तीन तलाक नहीं दे सकता। अगर कोई ऐसी मजबूरी होती कि तलाक के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं रह जाता तो कुरआन के अहकामात के मुताबिक ही तलाक हो सकता। इनके अलावा भी कई ऐसी कानूनी और समाजी बंदिशें शौहरांे पर आयद की जा सकती थीं जिनका असर शौहर पर ताउम्र रहता।
आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड समेत जो मुसलमान और मुस्लिम तंजीमें यह कहकर इस कानून की मुखालिफत कर रही हैं कि यह कानून शरीअत में दखल अंदाजी करता है हम समझते हैं कि उनका एतराज भी गलत और नामुनासिब है। उन्हें तो यह कह कर इसकी मुखालिफत करनी चाहिए कि यह जल्दबाजी में कमअक्ली से बनाया गया बेवकूफियों भरा कानून है। इससे मुस्लिम ख्वातीन को फायदा होने के बजाए नुक्सान होगा और सुप्रीम कोर्ट का आर्डर बेमायनी हो जाएगा। इसलिए हम इसकी मुखालिफत करते हैं। इस कानून के पीछे दरअस्ल मोदी सरकार की एक छुपी हुई मंशा यह है कि वह 2019 के लोक सभा एलक्शन से पहले मुल्क में यूनिफार्म सिविल कोड के नाम पर हिन्दुत्ववादी कानून लाने की कोशिश कर सकती है। इस कानून पर रद्देअमल (प्रतिक्रिया) जानने की कोशिश फिलहाल की गई है। अभी से इंद्रेश कुमार के इशारों पर काम करने वाली कुछ मुस्लिम ख्वातीन ने कहना शुरू कर दिया है कि एक से ज्यादा शादियों पर पाबंदी भी लगाई जाए वर्ना एक से तीन साल तक की सजा काटने के बाद एक साथ तीन तलाक कहने वाले मर्द खुद तो दूसरी शादी करके आराम से रहेगे, भुगतेगी वह खातून जिसकी शिकायत पर शौहर को तीन साल की सजा हुई होगी। आरएसएस से जुडे़ कई लोग भी इन कम अक्ल मुस्लिम ख्वातीन की बात को आगे बढाने में लग चुके हैं। रविशंकर प्रसाद यह भी कहते हैं कि तील साल तक की सख्त सजा के खातून से लोग डरेगे। यह उनकी खाम ख्याली है। पूरी दुनिया में सख्त कानून का फायदा होने के बजाए नुक्सान होने की ही मिसालें भरी पड़ी हैं। अपने मुल्क में ही कत्ल की सजा मौत और उम्रकैद है। इतनी सख्त सजा के बावजूद मुल्क में कत्ल की कितनी वारदातें हो रही हैं यह किसी से छुपा नहीं है। सख्त कानून पर मुल्क के मशहूर माहिरे कानून फैजान मुस्तफा बताते हैं कि ब्रिटेन में पुराने वक्त जेब काटने वाले को अवामी तौर पर फांसी की सजा दी जाती थी अवाम को हुक्म था कि इलाके के लोग इकट्ठा होकर मौत की सजा होते देखेंगे भी। एक बार लंदन में ऐसे ही एक जेब कतरे को अवामी तौर पर फांसी की कार्रवाई हो रही थी, देखने वालों की भीड़ इक्टठा थी तो उस भीड़ में शामिल इक्कीस लोगों की जेबें कट गई थीं। उसी वाक्ए के बाद ब्रिटेन ने इस सजा पर नजरसानी (पुर्नविचार) किया था।
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सुशील गुप्ता ने माँगा था केजरीवाल से 854 करोड़ का हिसाब, आप ने दिया राज्यसभा का टिकट
नई दिल्ली| दिल्ली में राज्यसभा के तीन सीटों के लिए होनी वाले चुनाव के लिए आम आदमी पार्टी ने अपने तीनों प्रत्याशी के नाम क्लियरकर दिया हैं. बता दे दिल्ली विधानसभा में सबसे ज्यादा सीट आप के पास हैं और इस बार राज्यसभा में आप के ही उम्मीदवार जीतेंगे. विधानसभा में कांग्रेस के पास शून्य सीट है,वही भाजपा के पास 4 सीटें हैं.
आप ने जिन तीन नामों की घोषणा राज्यसभा के लिए की हैं उनमें संजय सिंह, सुशील गुप्ता और एनडी गुप्ता हैं. संजय सिंह आप पार्टी के जाने माने चेहरा है.वही सुशील गुप्ता दिल्ली के बहुत बड़े कारोबारी हैं.
सूत्रों की माने तो सुशील गुप्ता भूमाफिया हैं दिल्ली और खासतौर से हरियाणा में 25-30 स्कूल, कॉलेज और अस्पताल हैं. बीते काफ़ी समय से वो शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में काम कर रहे हैं और चैरिटी भी कर रहे हैं. सूत्र ये भी बता रहे हैं कि सुशील गुप्ता का हरियाणा में अच्छा नेटवर्क है. 2013 में सुशील गुप्ता कांग्रेस के टिकट से दिल्ली विधानसभा का चुनाव लड़ चुके हैं. केजरीवाल के खिलाफ कुछ महीने पहले ही 854 करोड़ का हिसाब सुशील गुप्ता ने माँगा था. सूत्र बता रहे हैं कि सुशील को टिकट उनके मुह बंद करने के लिए ही दिया गया हैं.
नारायण दास गुप्ता पेशे से चार्टर्ड अकाउंटेंट हैं और चार्टर्ड अकाउंटेंट की सबसे बड़ी संस्था इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड अकाउंटेंट ऑफ इंडिया के पूर्व प्रेसिडेंट हैं. सूत्रों की माने तो करीब डेढ़ साल से आप पार्टी का आयकर विभाग का केस जिसमें फंडिंग में गडबडी का आरोप और 30 करोड़ रुपये टैक्स देने का आदेश इस मामले को एनडी गुप्ता ही देख रहे थे.
मुस्लिम राजनीति की विडंबना
तीन तलाक़ बिल पर बहस के दौरान अकेले बैरिस्टरअसदुददीन ओवैसी ही लड़ते नज़र आए, बड़ी दिलेरी से लड़े.बीस लाख हिंदू औरतों और गुजरात की’हमारी भाभी’ के सवाल को जिस ख़ूबसूरती से रखा, पूरा सदन सकते में आ गए. आज ओवैसी की मुस्लिम समाज में ख़ूब प्रशंसा हो रही है.वो भी मुसलमान उनकी भूरि- भूरि प्रशंसा करते नहीं थक रहे, जिनका हलक उन्हें भाजपा एजेंट कहते छिल जाता था.ऐसा नहीं कि, ओवैसी अकेले मुस्लिम सांसद हैं. जानकारी केलिये वर्तमान लोकसभा में तेईस मुसलमान मौजूद हैं.बदक़िस्मती से दो उलेमा *मौलाना असरारूल हक़ क़ासमी और *मौलाना बदरूद्दीन अजमल कासमीभी मौजूदा सदन के ही सदस्य हैं.दोनों उलेमा ने तीन तलाक़ बिल का कितना विरोध किया, ये शायद बताने की ज़रूरत नहीं है.मौलाना असरार कासमी की सेक्युलर कांग्रेस पार्टी चूँकि भाजपा के साथ खड़ी थी तो मौलाना की बिसात क्या?बाहर में भले ही बयान देते रहें. बरगला कर मुसलमानों का वोट जो लेना है! सच बात यह है की बाक़ी मुस्लिम सांसदों ने मुसलमानों को मायूस किया. मगर ये ना समझिये की ओवैसी मुसलमानों के नायक बने रहेंगें. चुनाव आने दीजिए, ओवैसी से बड़ा खलनायक कोई नहीं होगा. वो फिर भाजपा के एजेंट ठहराए जायेंगे.अभी कई साइट पर मैं ख़बर देख पा रहा हूँ की’तीन तलाक़ पर ओवैसी ने मोदी को फिर से नंगा किया, भाजपा की बोलती की बंद’.मगर यही क़ौम उन्हें बेतरह से उन्हें नंगा करेगी. दस तोहमत लगाएगी. भाजपा का एजेंट क़रार देगी.राज्यों को सिर्फ़ अपने बाप की जागीर समझ कर बिहार,यूपी, महाराष्ट्र में नहीं आने की अपील ही नहीं, मरने- मारने पर तुल जाएगी. बिहार विधानसभा चुनाव में जदयू के के सी त्यागी ने ओवैसी पर भाजपा से डील का शोशा छोड़ा था.लालू के चम्मच बने एक डॉक्टर तो हाथ धोकर पीछे पड़ गए थे. पता कीजिए डॉक्टर आज किस राह पर हैं,मोदी भक्ति की गीत किस क़द्र गा रहे हैं और के सी त्यागी की पार्टी भाजपा की एजेंटी में किस तरह उठक- बैठक कर रही है. दरअसल, हमारी अपनी कोई सियासी सोच है ही नहीं.हम दूसरे की ज़बान बोलते हैं.कथित सेक्युलर नेताओं की ज़बान बोलते हैं.इसलिए,जब भी भारत में मुस्लिम नेतृत्व उभरती है, हम उसे भाजपा का एजेंट कह देते हैं.अल्लाह ने ज़बान तो अपनी दी है.मगर इस ज़बान का इस्तेमाल कोई और करता है. हम आज तक लालू, मुलायम, ममता,अखिलेश, माया, सोनिया की ज़बान बोलते आए हैं. इसलिए, धोका भी उतना ही खाते हैं. सेक्युलरिज़म का सारा ठीक़ा हमने ही ले रखा है. जबकि,सेक्युलर हिंदुस्तान कभी हमारे साथ खड़ा नहीं रहा. पचहत्तर ख़ामियों के बावजूद तीन तलाक़ का क़ानून जिस तरह बना वो सेक्युलर भारत केलिये ख़तरनाक संकेत है. मसला तीन तलाक़ का नहीं है.जिस हटधर्मी से सदन में पास कराया गया और पूरा सदन (सभी सेक्युलर पार्टी ने हथियार डाल दिया)जिस तरह से नतमस्तक रहा , कल को कॉमन सिविल कोड भी इसी तरह लाया जाएगा. हमारे जैसे मुसलमानों की असल चिंता यह है. सवाल यह है की तीन तलाक़ का मसला देश की समस्या क्यों नहीं है.अकेले, असादुददीनओवैसी ही क्यों बोले. मुस्लिम वोट के सौदागरों के मुँह में दही क्यों जम जाता है. असल सवाल अपनी क्यादत का है. सदन में एक नहीं दस ओवैसी की ज़रूरत है. मुँह में ज़बान वाले प्रतिनिधि भेजिए, ज़्यादा से ज़्यादा भेजिए. अपने बूते राजनीति कर रहे अपने भाईयों को एजेंट कहना छोड़िए. अपने सियासी दुश्मनों की पहचान कीजिए. जो सत्तर सालों से ऐन मौक़े पर आप का साथ छोड़ देता है, आपको धोका देता है.
तलाक़ पर बने क़ानून के पीछे असली जिम्मेदार आरिफ मो0 खान
एक रिपोर्ट वतन समाचार की.
इस बीच वतन समाचार ने उस हस्ती को खोज निकाला है, जिसके एक खत ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तीन तलाक के लिए कानून बनाने पर मजबूर कर दिया. वतन समाचार से टेलीफोनिक बातचीत में देश के पूर्व केंद्रीय मंत्री और मशहूर समाजी रहनुमा आरिफ मोहम्मद खान ने बताया कि:
6 अक्टूबर 2017 को उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक तफ़सीली खत लिखा था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखे पांच पन्नों के इस ख़त में उन्होंने उनसे एक मजलिस की तीन तलाक (तलाक-ऐ-बिदअत) को खत्म करने के लिए संसद से कानून बनाने की अपील करते हुए कहा था कि अगर सरकार इस पर आगे नहीं बढेगी तो वह अगले महीने आंदोलन करने के लिए मजबूर होंगे.
वतन समाचार से बातचीत में उन्हों ने बताया कि मुझे ऐसा लगा कि शायद प्रधानमंत्री इस पर इतनी तवज्जो नहीं देंगे, क्योंकि इस की ज़ुबान सख्त थी. हमने इस में यह भी कहा था कि अगर संसद से कानून पारित नहीं होता है तो फिर वह आंदोलन के लिए मजबूर होंगे. उन्होंने बताया कि उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अपील की थी कि जिस तरह 1986 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद के जरिए पलट कर धूमिल किया गया उसी तरह इस बार नहीं होना चाहिए, इसलिए कानून बनाना जरूरी है.
प्रधान मंत्री का आया फोन
अगले दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मेरे पास फोन आया. फिर 1 घंटे की लंबी मीटिंग में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पूरे प्रकरण को समझाने की कोशिश की. बातचीत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कहा कि यह सदियों पुरानी बिदअत खत्म होनी चाहिए. आरिफ मोहम्मद खान ने बताया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वादा किया कि कल कोई आपसे मिलेगा.
JS लॉ ड्राफ्टिंग पहुंचे आरिफ मोहम्मद खान के घर
आरिफ मोहम्मद खान ने बताया कि अगले ही दिन लॉ मिनिस्ट्री के लोग उनके घर आगए. जॉइंट सेक्रेटरी ड्राफ्टिंग ने उनसे कहा कि ड्राफ्ट बनाने में वह उन से सरकार की मदद चाहते हैं. जिस पर मैं ने कहा कि मै सिर्फ दो चीजें चाहता हूँ. इसमें सजा का प्रावधान होना जरूरी है, ताकि तलाक तलाक तलाक की प्रथा पर रोक लगे. मुझे खुशी है कि मेरी दोनों बातों को सरकार ने माना, और इस सदियों पुरानी बिदअत को खत्म कर दिया गया.
मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड पर निशाना:
आरिफ मोहम्मद खान ने बताया कि मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के लोग कहते हैं कि मेंटेनेंस पति की जिम्मेदारी नहीं है, और कुरान की आयत मुसलमानों के लिए नहीं बल्कि मुत्तकियों के लिए है. अगर मेंटेनेंस शरीयत का हिस्सा नहीं है, तो एक मजलिस की तीन तलाक भी शरीयत का हिस्सा नहीं है.
जिंदगी में कानून बनने से ख़ुशी हुई:
मीनाक्षी लेखी के जरिये 28 दिसंबर-२०१७ के संसद के दिन को आरिफ मोहम्मद खान और इन जैसे लोगों को समर्पित किए जाने की बात पर उन्होंने कहा कि मैं मीनाक्षी जी का शुक्रिया अदा करता हूं कि उन्होंने मुझे इस लायक समझा, लेकिन मैं इससे ज्यादा अल्लाह का शुक्र अदा करता हूं कि मेरी जिंदगी में इस पूरे मामले पर फैसला आ गया वरना होता यह है कि तहरीक चलाने वाले चले जाते हैं, उसके बाद कोई कानून आता है और लोग उनको याद करते हैं.
अल्लाह के साथ प्रधान मंत्री का भी शुक्रिया:
उन्होंने कहा कि मुझे कोई एजाज नहीं चाहिए मैं सिर्फ और सिर्फ अल्लाह का शुक्र अदा करता हूं और इस्लाम के अनुसार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का शुक्रिया अदा करता हूं, क्योंकि जो बंदों का शुक्र अदा नहीं करता वह अल्लाह रब्बुल आलमीन का भी शुक्रगुजार नहीं हो सकता.
तलाक़ इस्लाम का हिस्सा लेकिन…
आरिफ मोहम्मद खान के मुताबिक तलाक की प्रथा को दुनिया की कोई ताकत खत्म नहीं कर सकती है, क्योंकि अगर मियां बीवी साथ नहीं रहना चाहते तो उन्हें कोई रोक नहीं सकता, और इस्लाम ने दोनों को ही तलाक़ का अधिकार दिया है जिसे बीवी दे तो खुला कहा जाता है, लेकिन एक मजलिस की तीन तलाक यह सदियों पुरानी बिदअत थी इस पर रोक लगाना जरूरी था. इस संबंध में सरकार ने एक सराहनीय कदम उठाया है क्योंकि मुस्लिम बच्ची जब जवान होती है तो वह इस सोच के साथ जवान होती है कि उसका पति जब भी चाहेगा उसे तलाक तलाक तलाक कह कर अलग कर देगा, और इस तरह की बातें मैं अपनी जिंदगी में देख चुका हूं.
क़ानून एक सबक
जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी यह बिदअत जरी थी और लोग बाज़ नहीं आ रहे थे तो यह कानून उन के लिए एक सबक है.
बोर्ड पर इस्लाम की छवि धूमिल करने का आरोप:.
आरिफ मोहम्मद खान ने AIMPLB पर आरोप लगाया कि इस्लाम के चेहरे को ख़राब करने के लिए बोर्ड पूरी तरह से जिम्मेदार हैं. अगर यह लोग किसी दूसरे देश में होते तो लोग सड़कों पर इनको सजा देते. 1986 में बोर्ड ने कहा कि क़ुरान के अनुसार मेंटेनेंस मुसलमानों के लिए नही बल्कि मुत्तकियों के लिए है, इस से गलत बात और क्या हो सकती थी.
बोर्ड पर सवाल: मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के वकील पर सवाल उठाते हुए आरिफ मोहम्मद खान ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय में कपिल सिब्बल ने भी खुद को बोर्ड से अलग कर लिया था. ऐसा इतिहास में पहली बार देखा गया कि वकील यह कह रहा हो कि जिस तरह से उस की आस्था है कि अयोध्या में राम पैदा हुए उसी तरह से मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड की यह पुरानी आस्था है, बोर्ड ने इस से खुद को अलग क्यों नहीं किया.
बोर्ड के लोगों से सवाल:
तीन तलाक देने पर बोर्ड के जरिये सोशल बायकॉट के सवाल पर आरिफ मोहम्मद खान ने कहा कि यह लोग क्या सोशल बायकॉट करेंगे, मैंने तो यह पूछने की कोशिश की कि मुस्लिम पर्सनल बोर्ड में कितने ऐसे लोग हैं जिन्होंने तीन तलाक के जरिए से अपनी बीवियों को घरों से निकाल दिया है? इस पर खामूही क्यों है?
सजा कम है:
सज़ा के सवाल पर आरिफ मोहम्मद खान का कहना था कि जहां तक सजा में ज़ियादती की बात कही जा रही है तो यह बिल्कुल बेबुनियाद है. उन्होंने कहा कि अगर 40 कोड़े लगाए जायें जो हज़रत उमर RA के ज़माने में लगाए जाते थे तो कोई जिंदा नहीं बचेगा. इस हिसाब से यह सजा बहुत कम है.
बोर्ड ने संसद से की थी कानून बनाने की अपील …
आरिफ मोहम्मद खान ने कहा कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड ने सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा दिया था कि वह इस मामले में हस्तक्षेप न करे, अगर सरकार चाहे तो पार्लियामेंट के जरिए इस संबंध में कानून बना सकती है, और जब सरकार ने कानून बना दिया है तो अब यह लोग कह रहे हैं कि सरकार कानून इस संबंध में नहीं बना सकती है. और इसे शरीयत में मुदाखिलत बता रहे है, जबकि शरियत में कोई मुदाखिलत नहीं कर सकता है, सिर्फ सदियों पुरानी बिदअत को रोका गया है.
ये राय रिपोर्टर की है..आपकी आवाज़.काँम का सहमत होना जरुरी नही है।
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हैदराबाद के निज़ाम मीर उसमान अली खान जिन्हें मोहसिन ए हिंदोस्तान कहा जाये तो ज़्यादा बहतर होगा.दरअसल मीर उसमान अली खाँ जो की 1940 के दशक मे दुनिया के सबसे अमीर इंसान थे.उनकी कुल संपत्ती उस समय अमेरीका की कुल इकॉनमी का 2% थी.
अगर आज हिसाब लगया जाये तो लगभग 33.8 बिलियन डॉलर होगी.1937 मे उन्हे टाइम मैग़ज़ीन के कवर पेज पर जगह दी गई थी. और अपने आखिर वक्त तक वो एशिया के सबसे धनी व्यक्ती रहै. ये सारी जानकारी तो विकिपीडिया पर मौजूद है लेकिन वो बात मौजूद नही जिसकी बिना पर मैने मीर उसमान अली खांन को “मोहसिन ए हिंदोस्तान” कहा.. तिब्बत की आज़ादी के मुद्दे पर भारत के रुख पर चीन विरोध दर्ज कराकर भारत को धमकी दे रहा था . हमारी फौजो के पास इतना असलाह और लाव लश्कर नही था की अगर माहौल बिगडे तो चीन से मुक़ाबला किया जा सके.
हालात की नज़ाकत को ध्यान मे रखते हुआ प्रधान मंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री ने राष्ट्रिय सुरक्षा कोष की स्थापना की.और मदद की गुहार लगा कर रजवाडो का रुख किया..लेकिन कामयाबी हासिल ना हुई.राजा-महाराजा ने हाथ खडे कर दिये….शास्त्री जी मायूस हो गये. फिर अचानक हैदराबाद निज़ाम का ख़्याल आया… और चल दिये हैदराबाद…निज़ाम मीर उसमान अली खां को हालात से रुबरू कराया…तुरंत ही मीर उसमान अली खां ने 5 टन सौना अपने मुल्क की खिदमत मे देने का फरमान सुना दिया.
वहां मौजूद सभी आम ओ ख़ास के होश उड गये…. इतनी बडी मदद….और निज़ाम मीर उसमान अली खां आसिफ जां ने वो सखावत का मुज़ाहिरा किया की आज तक उनकी इस दानवीरता की बराबरी करने वाला सरज़मीन ए हिंद पर पैदा नही हुआ.
طلاق ثلاثہ پر مجوزہ بل: ہمارا رد عمل کیا ہو؟
یاسر ندیم الواجدی
حکومت نے جب سے یہ اعلان کیا ہے وہ پارلیمنٹ میں ایک بل پیش کرنے جارہی ہے جس کے بعد تین طلاق قابل جرم عمل ہوگا جس کی سزا تین سال اور جرمانہ ہوگی، مسلم حلقوں میں بے چینی ہے جو کہ ایک فطری ردعمل ہے۔ مختلف گوشوں سے اس بل پر سوالات کھڑے کیے جارہے ہیں جن میں ایک مضبوط سوال یہ بھی ہے کہ مرد کو اگر تین سال کے لیے جیل میں ڈال دیا گیا تو وہ اپنے بیوی بچوں کے نان ونفقہ کا انتظام کیسے کرے گا جب کہ مجوزہ بل میں اس کو نان و نفقہ کا ذمے دار قرار دیا گیا ہے۔ دوسری طرف ہندوستان کے ایک موقر عالم دین نے اس بل کی کھل کر حمایت کی ہے، ان کے مطابق جب حضرت عمر فاروق رضی اللہ عنہ تین طلاق دینے والے کو کوڑوں کی سزا دیتے تھے تو اب بھی ایسے شخص کو سخت سے سخت سزا دی جانی چاہیے۔
لیکن ہمیں یہ نہیں بھولنا چاہیے کہ جب سے سپریم کورٹ نے تین طلاق کو غیر قانونی قرار دیا ہے، تب سے یہ مسئلہ محض شرعی نہیں رہ گیا ہے، اب جب کہ مجوزہ بل قانون بننے جارہا ہے، اس مسئلے کو ہندوستان کے دستور اور قانون کی روشنی میں ہی دیکھنا ہوگا۔
مجوزہ بل کا مطالعہ کرنے کے بعد یہ بات واضح ہو جاتی ہے کہ حکومت نے مسلم پرسنل لاء بورڈ کے کاندھے پر رکھ کر بندوق چلائی ہے۔ بل کے صفحہ تین پر “اسٹیٹمنٹ آف آبجیکٹ” کے تحت تیسری شق میں کہا گیا ہے کہ “مسلم پرسنل لاء بورڈ نے اپنے ایفی ڈیوٹ میں کہا ہے کہ عدالت شریعت میں مداخلت نہیں کرسکتی، البتہ قانون ساز ادارے اس معاملے پر قانون بناسکتے ہیں”۔ گویا حکومت نے یہ دلیل دی ہے کہ یہ بل اس لیے تجویز کیا جارہا ہے کیوں کہ بورڈ کے مطابق اس معاملے میں قانون بنانے کا اختیار حکومت کے پاس ہے۔ یہاں سوال یہ ہے کہ ایفی ڈیوٹ میں یہ بات کیوں ذکر کی گئی؟
بل کے مطابق “سپریم کورٹ نے تین طلاق کو غیر قانونی قرار دے دیا تھا لیکن پھر بھی کچھ لوگ اسی طریقے سے اپنی بیویوں کو طلاق دے رہے تھے، لہذا حکومت مجبور ہوئی کہ وہ اس قانون کے ذریعے طلاق ثلاثہ پر عمل کر روکے”۔ یہاں پر سوال یہ ہے کہ جب تین طلاق نافذ ہی نہیں ہوں گی تو پھر قانون کس چیز کو روکے گا؟ بل کے مطابق تین طلاق کے بعد بھی نان ونفقہ کی ذمے داری شوہر کی ہے، سوال یہ ہے کہ جب تین طلاق واقع ہی نہیں ہوئیں تو نان و نفقہ تو شوہر ہی کی ذمے داری ہے، اس کو قانون بنانے کی کیا ضرورت ہے؟ اس طرح اس بل میں یہ دو تضادات واضح طور پر نظر آئے۔
مسلم پرسنل لاء بورڈ کی حالیہ میٹنگ میں، پریس رلیز کے مطابق یہ طے کیا گیا ہے جب تک قانون کا مطالعہ نہیں کیا جائے گا نہ کوئی احتجاج کیا جائے گا اور نہی کوئ رد عمل۔ بورڈ کا یہ فیصلہ بالکل درست ہے، لیکن بورڈ کے ارباب حل وعقد سے گزارش ہے کہ بل کا مطالعہ کرنے کے بعد بھی احتجاج کا کوئی اثر ہونے والا نہیں ہے۔ اگر حکومت واقعی انصاف پرور ہوتی تو شاید احتجاج پر کان دھرتی، کیا پانچ کروڑ دستخطوں نے حکومت پر کچھ اثر ڈالا؟ وہ تو چاہتی ہی یہ ہے کہ ہم احتجاج کریں اور وہ اپنی پیٹھ تھپتھپاتی رہے۔ البتہ قانون کے خلاف ردعمل قانون کی روشنی میں ہی ہونا چاہیے۔ ہمیں امید ہے کہ ماہرین قانون اس تعلق سے کوئی ٹھوس لائحہ عمل ترتیب دیں گے جس کی روشنی میں پرسنل لاء بورڈ اس مجوزہ ایکٹ کا مقابلہ کرسکتا ہے۔
ذیل میں چند باتیں بورڈ کی توجہ کے لیے ضبط تحریر کی جارہی ہیں:
1- ماہرین قانون اس بل پر یہ اعتراض کررہے ہیں کہ تین طلاق ایک سول معاملہ ہے جس کی سزا کرمنل ایکٹ کے تحت نہیں دی جانی چاہیے۔ بورڈ اگر اسی موقف پر، پارلیمنٹ سے بل کے پاس ہونے کے بعد سپریم کورٹ جائے تو ہوسکتا ہے کہ عدالت عالیہ سے کچھ راحت ملے۔ دستور ہند کے آرٹیکل 31 بی کے تحت نویں شیڈول میں آنے والے کسی بھی قانون کو سپریم کورٹ میں چیلنج نہیں کیا جاسکتا ہے، 1951 سے حکومتیں اپنے قوانین کو مزید تحفظ دینے کے لیے ان کو نویں شیڈول میں شامل کرتی آئی ہیں۔ اب ان قوانین کی تعداد 284 ہوچکی ہے جن کو سپریم کورٹ میں بھی چیلنج نہیں کیا جاسکتا۔ طلاق ثلاثہ کا یہ قانون اول تو نویں شیڈول میں نہیں آنا چاہیے اور اگر آیا بھی دو ہزار سات میں سپریم کورٹ کی نو رکنی بینچ نے یہ فیصلہ دیا تھا کہ اپریل 1973 کے بعد سے کوئی بھی قانون جس کو نویں شیڈول میں شامل کیا گیا ہو اگر وہ دستور کی دفع 14,19,20,21 کے خلاف ہوگا تو سپریم کورٹ اس کو ختم کرسکتی ہے۔
ان دفعات کے تحت آزادئ اظہار رائے اور یکساں قانونی مسؤولیت جیسے حقوق آتے ہیں۔ مجھے امید ہے کہ ماہرین قانون اس بات پر غور کریں گے کہ جب سپریم کورٹ کے مطابق تین طلاق نافذ نہیں ہوتیں تو یہ محض چند بے معنی الفاظ کا تحریری یا زبانی اظہار ہوا، تو کیا یہ آزادئ اظہار رائے کے تحت قابل جرم ہونا چاہیے؟ زیادہ سے زیادہ یہ کہا جاسکتا ہے کہ تین طلاق کی وہی حیثیت ہوئی جو کسی کو گالی دینے کی ہوتی ہے، اگر گالی یا ہتک آمیز گفتگو کسی عوامی جگہ پر کی جائے، تب بھی اس کی سزا آئی پی سی 294 کے تحت زیادہ سے زیادہ تین ماہ جیل ہے۔ ماہرین قانون یقینا اس پر غور کریں گے، اگر مذکورہ پوائنٹس درست ہیں تو سپریم کورٹ حکومت کے مجوزہ قانون کو مسترد کرنے کی مجاز ہوگی۔
سپریم کورٹ کے سامنے 2006 میں جسٹس ایچ کے سیما اور جسٹس آر وی رویندرن کا مشترکہ فیصلہ بھی نظیر کے طور پر پیش کیا جاسکتا ہے جو فاضل ججوں نے مدراس ہائی کورٹ کے خلاف دیا ہے، فیصلے کے مطابق “سول معاملات کو کرمنل بنانے کے رجحانات غلط ہیں، ایسی کسی بھی کوشش کی حوصلہ شکنی کرنی چاہیے، یہ نہایت غیر منصفانہ اور سنجیدہ معاملہ ہے”۔
2- عورتوں کے حقوق کے تعلق سے ڈومیسٹک وایولینس ایکٹ 2005 موجود ہے، جس کی رو سے عورت جسمانی یا “ذہنی” تشدد کے معاملے میں ڈسٹرکٹ مجسٹریٹ وغیرہ کے پاس مرد کے خلاف شکایت درج کراسکتی ہے۔ اس قانون کی رو سے متعلقہ ادارے کی ذمے داری ہوگی کہ وہ عورت کو تحفظ فراہم کرے۔ اگر مرد اس کے باوجود تشدد کرتا ہے تو اب یہ معاملہ کرمنل بن جاتا ہے ورنہ ابتدائی اسٹیج پر یہ سول ہی رہتا ہے۔ سپریم کورٹ نے 2016 میں اس قانون میں ایک بنیادی تبدیلی کی، عدالت نے قانون میں موجود “اڈلٹ میل” کا لفظ ہٹاکر ایسی عورتوں کو بھی شامل کرلیا جو جسمانی یا ذہنی تشدد میں ملوث ہوسکتی ہیں۔ یہاں سوال یہ ہے کہ طلاق ثلاثہ کو جو کہ کورٹ کے مطابق اب بے معنی ہے اگر ذہنی تشدد کے دائرے میں بھی لایا جائے تو اس کے متعلق ایک قانون پہلے سے موجود ہے، لہذا نیا قانون بنانے اور طلاق ثلاثہ کو کرمنل لاء کے تحت مجرمانہ عمل بنانے کی کیا ضرورت ہے؟ کیا یہ بات معقول ہے کہ جسمانی تشدد کو تو ابتدائی درجے میں سول قانون کے تحت رکھا جائے اور طلاق ثلاثہ کو ابتداء ہی کرمنل ایکٹ کے تحت؟
3- سپریم کورٹ میں یہ سوال بھی کیا جانا چاہیے کہ اگر شوہر نے تین طلاقیں زبانی دیں اور کوئی گواہ موجود نہیں ہے تو بیوی کے پاس اس کو ثابت کرنے کا کیا طریقہ ہوگا، پروفیسر فیضان مصطفی کے بقول کیا اس کیس کے لیے قانون شہادت کو بھی بدلا جائے گا؟ کرمنل ایکٹ کے تحت ملزم کو اسی وقت مجرم قرار دیا جائے گا جب کہ اس کے خلاف ناقابل تردید ثبوت ہوں، اگر عورت یہ ثبوت فراہم نہ کرپائی تو مرد تو قانون کے شکنجے سے بچ نکلا لیکن عورت کو نہ تو انصاف ملا اور نہی شوہر، تو اس قانون نے عورتوں کو تحفظ کیسے فراہم کیا؟
مجھے امید ہے کہ بورڈ کے قابل وکلاء پہلے ہی سے کسی مضبوط لائحہ عمل پر کام کررہے ہوں گے۔ اگر عدالتیں قانون کی شارح اور پاسبان ہیں تو اس قانون کو سپریم کورٹ میں چیلنج کرنا اور فتح یاب ہوجانا بہت ممکن ہے۔ ساتھ ہی میں ان موقر شخصیات سے بھی گزارش کروں گا جو مجوزہ بل کی حمایت کررہی ہیں کہ وہ اس قانون کو حکم فاروقی کی روشنی میں نہ دیکھیں، بلکہ دستور ہند کی روشنی میں اس قانون کا تجزیہ کریں۔ اگر وہ تین طلاق دینے والوں کے خلاف سزا کی کی حمایت کرنا ہی چاہتے ہیں تو وہ سزا سول کوڈ کے مطابق ہونی چاہیے نہ کہ کرمنل کوڈ کے، بصورت دیگر بے شمار مسلمان مرد بلا کسی جرم کے جیل کی سلاخوں کے پیچھے ہوں گے اور ہندوستان کے سست عدالتی نظام کا شکار ہوچکے ہوں گے۔